रविवार, 21 फ़रवरी 2010

Ram-Ram

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सोमवार, २८ दिसम्बर २००९

गीता प्रथम अध्याए

मनकी शान्ति गीता ,मन की चंचलता गीता ,मन की हलचल गीता ,मन को काबू करती गीता ,मनकी तृप्ति गीता ,सभी की मार्गदर्शक गीता ,तेरी मेरी गीता ,अंधे की आँख गीता ,बुडे -बचे -जवान का सहारा गीता , हर इन्सान की रकल्याण की इच्छा वाले मनुष्यों को उचित है कि मोह का त्याग कर अतिशय श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपने बच्चों को अर्थ और भाव के साथ श्रीगीताजी का अध्ययन कराएँ। 



स्वयं भी इसका पठन और मनन करते हुए भगवान की आज्ञानुसार साधन करने में समर्थ हो जाएँ क्योंकि अतिदुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर अपने अमूल्य समय का एक क्षण भी दु:खमूलक क्षणभंगुर भोगों के भोगने में नष्ट करना उचित नहीं है।



गीताजी का पाठ आरंभ करने से पूर्व निम्न श्लोक को भावार्थ सहित पढ़कर श्रीहरिविष्णु का ध्यान करें--



अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्यनाभं सुरेशं 


विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।


लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं 


वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।। भावार्थ : जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो ‍देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदरजिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।




यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै-


र्वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:।


ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो-


यस्तानं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:।। भावार्थ : ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्‍गण दिव्य स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गाने वाले अंग, पद, क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं, योगीजन ध्यान में स्थित तद्‍गत हुए मन से जिनका दर्शन करते हैं, देवता और असुर गण (कोई भी) जिनके अन्त को नहीं जानते, उन (परमपुरुष नारायण) देव के लिए मेरा नमस्कार है।



श्रीमद्‍भगवद्‍गीता का पाठ करें 

अर्जुनविषादयोग- नामक पहला अध्याय 



01-11 दोनों सेनाओं के प्रधान-प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन।






12-19 दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का कथन 






20-27 अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग 






28-47 मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन 


( दोनों सेनाओं के प्रधान-प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन ) 


धृतराष्ट्र उवाच 

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।


मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥ 


भावार्थ : धृतराष्ट्र बोले- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?॥1॥ 


संजय उवाच


दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।


आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्‌ ॥


भावार्थ : संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखा और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा॥2॥ 


पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्‌ ।


व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥


भावार्थ : हे आचार्य! आपके बुद्धिमान्‌ शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए॥3॥ 


अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।


युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥


धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्‌ ।


पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः ॥


युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌ ।


सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥






भावार्थ : इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी हैं॥4-6॥ 


अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।


नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥ 


भावार्थ : हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिए। आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ॥7॥ 


भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।


अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥ 


भावार्थ : आप-द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा॥8॥ 


अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।


नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥ 


भावार्थ : और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सब-के-सब युद्ध में चतुर हैं॥9॥ 


अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्‌ ।


पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्‌ ॥ 


भावार्थ : भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है॥10॥ 


अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।


भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥ 


भावार्थ : इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें॥11॥ 

 
( दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का कथन ) 




तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।


सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान्‌ ॥ 


भावार्थ : कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया॥12॥ 


ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।


सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्‌ ॥


भावार्थ : इसके पश्चात शंख और नगाड़े तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ॥13॥ 


ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।


माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥


भावार्थ : इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाए॥14॥ 


पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।


पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः ॥ 


भावार्थ : श्रीकृष्ण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया॥15॥ 


अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।


नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥ 


भावार्थ : कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाए॥16॥ 


काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।


धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥


द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।


सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक्‌ ॥ 


भावार्थ : श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु- इन सभी ने, हे राजन्‌! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाए॥17-18॥ 


स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्‌ ।


नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्‌ ॥ 


भावार्थ : और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए धार्तराष्ट्रों के अर्थात आपके पक्षवालों के हृदय विदीर्ण कर दिए॥19॥ 
( अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग ) 


अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्‌ कपिध्वजः ।


प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥ 


हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते । 


अर्जुन उवाचः


सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥


भावार्थ : हे राजन्‌! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-संबंधियों को देखकर, उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा- हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए॥20-21॥ 


यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्‌ ।


कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥


भावार्थ : और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख न लूँ कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिए॥22॥ 


योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।


धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥


भावार्थ : दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आए हैं, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा॥23॥ 


संजय उवाचः


एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।


सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्‌ ॥


भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्‌ ।


उवाच पार्थ पश्यैतान्‌ समवेतान्‌ कुरूनिति ॥ 


भावार्थ : संजय बोले- हे धृतराष्ट्र! अर्जुन द्वारा कहे अनुसार महाराज श्रीकृष्णचंद्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा कर इस प्रकार कहा कि हे पार्थ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवों को देख॥24-25॥ 


तत्रापश्यत्स्थितान्‌ पार्थः पितृनथ पितामहान्‌ ।


आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥


श्वशुरान्‌ सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि । 


भावार्थ : इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा॥26 और 27वें का पूर्वार्ध॥ 


तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्‌ बन्धूनवस्थितान्‌ ॥


कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत्‌ । 


भावार्थ : उन उपस्थित सम्पूर्ण बंधुओं को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले। ॥27वें का उत्तरार्ध और 28वें का पूर्वार्ध॥ 
(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन ) ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो 


अर्जुन उवाच

दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्‌ ॥


सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति । 


वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ॥


भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है॥28वें का उत्तरार्ध और 29॥ 


गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।


न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥


भावार्थ : हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ॥30॥ 


निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।


न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥


भावार्थ : हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता॥31॥ 


न काङ्‍क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।


किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥






भावार्थ : हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?॥32॥ 


येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।


त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥ 


भावार्थ : हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं॥33॥ 


आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।


मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥ 


भावार्थ : गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं ॥34॥ 


एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।


अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥ 


भावार्थ : हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?॥35॥ 


निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।


पापमेवाश्रयेदस्मान्‌ हत्वैतानाततायिनः ॥ 


भावार्थ : हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा॥36॥ 


तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्‌ ।


स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥ 


भावार्थ : अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?॥37॥ 


यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।


कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्‌ ॥


कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्‌ ।


कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ 


भावार्थ : यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?॥38-39॥ 


कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।


धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥ 


भावार्थ : कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है॥40॥ 


अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।


स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥ 


भावार्थ : हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है॥41॥ 


संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।


पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ 


भावार्थ : वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं॥42॥ 


दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।


उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ 


भावार्थ : इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं॥43॥ 


उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।


नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥ 


भावार्थ : हे जनार्दन! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चितकाल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आए हैं॥44॥ 


अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्‌ ।


यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥ 


भावार्थ : हा! शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गए हैं॥45॥ 


यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।


धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्‌ ॥ 


भावार्थ : यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा॥46॥ 


संजय उवाच


एवमुक्त्वार्जुनः सङ्‍ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्‌ ।


विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥ 


भावार्थ : संजय बोले- रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए॥47॥

रविवार, २७ दिसम्बर २००९

गीता

मनकी शान्ति गीता ,मन की चंचलता गीता ,मन की हलचल गीता ,मन को काबू करती गीता ,मनकी तृप्ति गीता ,सभी की मार्गदर्शक गीता ,तेरी मेरी गीता ,अंधे की आँख गीता ,बुडे -बचे -जवान का सहारा गीता , हर इन्सान की रक्षक गीता ,चिन्तन -मनन का साधन गीत
गीता उपदेश जीवन की धारा है। चूंकि गीता में जीवन की सच्चाई छिपी है और इसमें जीवन में आने वाली दुश्वारियों के कारण व निवारण दोनों को ही विस्तार से समझाया गया है। इसलिए गीता के उपदेश विश्व भर में प्रसिद्ध है और हर वर्ग को प्रभावित करते हैं। 







उन्होंने उदाहरण देकर समझाते हुए कहा कि गीता डाक्टर की भांति है। बस फर्क इतना ही है कि डाक्टर शरीर के रोगों का इलाज करता है जबकि गीता मन के रोगों का इलाज करती है और उन्हें दूर करने का मार्ग दिखाती है। जिस प्रकार डाक्टर रोगी को रोग के निवारण के साथ-साथ उसके कारण भी बताता है। ठीक उसी प्रकार से गीता का अगर गहनता से अध्ययन किया जाए तो इससे मन के रोगों का कारण और निवारण दोनों का पता चल जाता है। 






गीता मन के रोगों को दूर करने का एक सशक्त माध्यम है। गीता ज्ञान से मानव जीवन में मोह को भी आसानी से दूर किया जा सकता है। मोह जीवन लीला को धीरे-धीरे नष्ट कर देता है। जीवन में दुखों का सबसे बडा कारण मोह ही है। जीवन को अगर सफल बनाना है और मोह से मुक्ति पानी है तो गीता की शरण में जाना पडेगा। गीता से ज्ञान पाकर मानव मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। 






गीता का ज्ञान मनुष्य को उसकी आत्मा के अमर होने के विषय में बोध करवा कर अपने कर्तव्य कर्म को पूर्ण निष्ठा से करने को प्रेरित करता है। भगवान ने मनुष्य को देह केवल भोग के लिए प्रदान नहीं की है अपितु हमें इसका उपयोग मोक्ष प्राप्ति के लिए करना चाहिए। इसके लिए हमें भजन, सत्संग, समाज सेवा व जन कल्याण के कार्य करने चाहिए। 






उन्होंने कहा कि साधु व नदी कभी एक स्थान पर नहीं रुकते और निरंतर आगे बढते हुए विभिन्न स्थानों पर जन-जन के हृदयों में अपने ज्ञान व भक्ति के प्रभाव से उन्हें लाभान्वित व आनंदित करते हैं। प्रत्येक मानव को पूरी श्रद्धा व निष्ठा से परोपकार के लिए तैयार रहना चाहिए और अपने ज्ञान से जगत को प्रकाशमान करने का प्रयास करते रहना चाहिए, असल में यही मानव धर्म है।

गुरुवार, २४ दिसम्बर २००९

मनकी शान्ति गीता ,मन की चंचलता गीता ,मन की हलचल गीता ,मन को काबू करती गीता ,मनकी तृप्ति गीता ,सभी की मार्गदर्शक गीता ,तेरी मेरी गीता ,अंधे की आँख गीता ,बुडे -बचे -जवान का सहारा गीता , हर इन्सान की रक्षक गीता ,चिन्तन -मनन का साधन गीता
हादसों और त्रासदियों से गुजरते हुए अनुभवों से हम यह जो पहले दिन का सूर्य देख रहे हैं, वह पहले जैसा नहीं है। कुछ नया कह रहा है, कुछ नया पूछ रहा है। सियासतगर्दी और दहशतगर्दी के वार से लहूलुहान जख्म लेकर हमने जो जश्नों से हट कर प्रश्नों से मुकाबला करने की बातें तय की थीं, साल का प्रारंभ उन्हीं सवालों को लेकर खड़ा है। लेकिन नागरिकों के कब्र पर नेता अपने जन्मोत्सव की तैयारियों में मशगूल हैं और हम नया साल मुबारक का मर्सिया पढ़ने में...मशगूल                             सुना देर रात कि लोग नए साल के आगमन का जश्न मनाने सड़कों पर निकल आए हैं... साफ दिखा सत्ता अलमबरदारों के पाप का संताप कम करने के लिए आम आदमी 'जश्न’ की घातक नशीली दवा का लती हो चुका है। पूरी तरह बेहोश... होश दुखदायी असलियत की पीड़ा जो देता है।
कभी नशे में आने, कभी उससे पार पाने की कोशिशों और चिल्लपों से दूर एकांत की तलाश में यूं ही अचानक देर रात गोमती नदी के किनारे मायावती की मूर्ति के पायताने एकांत में गुमसुम बैठे लखनऊ से मुलाकात हो गई। थका हारा निढाल सा लखनऊ का सूक्ष्म शरीर गोमती के इर्द गिर्द बिखरे निर्मम पत्थरों से तय हो रही विकास यात्रा का सच पढ़ने की शायद कोशिश में था। उसी लखनऊ की आत्मा से रात की मुलाकात एक अलग विचार-लोक में ले जाती है। सुख और गौरव के संस्मरणों में भोगे जा रहे वर्तमान की पीड़ा के अजीबोगरीब व्यथा-संसार में। कब सुबह हो गई! कब नया साल आ गया! कब लखनऊ का सूक्ष्म शरीर स्थूल में जा मिला! कब सारा दृश्य एक बार फिर भाव से भौतिक हो गया, पता ही नहीं चला।
बात करने को राजी ही नहीं थे। कई सारे सवाल एक साथ ही पूछ डाले। नए साल का जश्न मनाने वाली भीड़ का तुम हिस्सा तो नहीं? कोई नेतातो नहीं? कोई अपराधी या अधिकारी तो नहीं? फिर रात में गोमती बंधे पर क्यों फिर रहे? ताबड़तोड़ कई सवाल। सूक्ष्म शरीर से स्थूल सवालों की बौछार? इस पर लखनऊ ढीले पड़े। आंखों के भाव बदले। पितृ-भाव से परखा फिर बड़े स्नेह से बगल में बिठाया। इस बार मेरे बिना पूछे ही बोल पड़े, जैसे स्वगत। ...दूर वह श्मशान निहार रहा था... कैसे कैसे श्मशान का विस्तार पूरे शहर पर पसर गया... चौराहों-चौबारों पर लाशें सजने लगीं... कैसा फर्क आया कि पुरखों का सम्मान और अनुसरण करने के बजाय उनकी लाशों की प्रतिकृतियों से हम खूबसूरत पृथ्वी को ढांकने लगे... समाधियों और स्मारक के विस्तार को हम सामाजिक विकास का मानक मानने लगे... जब मुरदे हमारे प्रतीक चिन्ह बन जाएंगे तो जीवन कहां रह जाएगा... इसीलिए तो हमारे प्राण संकट में फंस गए... मैं खुद इसका भुक्तभोगी हूं।लखनऊ के भाव तीखे होते चले गए। कहने लगे। ...समाज का उत्थान मकबरों से शुरू होता देखा है कभी? जीवन के अंत का प्रतीक चिन्ह समाज के जिंदा होने का प्रतीक बन जाए तो क्या होगा? इसीलिए तो भीड़ इतनी निस्तेज दिखती है... कभी सोचा है? लखनऊ खुद बोल पड़ते हैं... सोचा होता तो न इस देश की दुर्दशा हुई होती न मेरी... अंधेरा और स्याह दिखने लगा था। वयोवृद्ध लखनऊ की सांसें तेज होने लगी थीं। भावुकता के ज्वार फूटने लगे थे। वे बुदबुदा रहे थे... शायद हम सबसे ही कह रहे थे...
जब धरा पर धांधली करने लगे पागल अंधेरा/और अमावस धौंस देकर चाट ले सारा सवेरा/तब तुम्हारा हार कर यूं बैठ जाना बुजदिली है पाप है/आज की इन पीढि.यों को बस यही संताप है/अब भी समय है आग को अपनी जलाओ/बाट मत देखो सुबह की प्राण का दीपक जलाओ/मत करो परवाह कोई क्या कहेगा/इस तरह तो वक्त का दुश्मन सदा निर्भय रहेगा/सब्र का यह बांध तुमने पूछ कर किससे बनाया/कौन है जिसने तुम्हें इतना सहन करना सिखाया/तोड़ दो यह बांध बहने दो नदी को/दांव पर खुद को लगा कर धन्य कर दो इस सदी को/मैं समय पर कह रहा हूं और अब क्या शेष है/तुम निरंतर बुझ रहे हो बस इसी का क्लेश है/जो दिया बुझ कर पड़ा हो वह भला किस काम का/यह समय बिल्कुल नहीं है ज्योति के आराम का/आज यदि तुमने अंधेरे से लड़ाई छोड़ दी/तो समझ लो रौशनी की चूड़ियां घर में बिठा कर तोड़ दी...
                                          लखनऊ की आंखों के कोर भींगने लगे थे। मैं उसमें डूबता चला गया। वे कब चले गए और मैं कब ठहर गया, पता ही नहीं चला। तंद्रा अब तक टूटी नहीं है। लखनऊ की आत्मा के स्वर अब भी गूंज रहे हैं। मन तिक्त हो उठा है। कैसे कहें नया साल मुबारक...!

शनिवार, ५ दिसम्बर २००९

जबलपुर हाईकोर्ट के आदेश के पालन में घमापुर-शीतलामाई मार्ग के अतिक्रमणों पर युद्धस्तरीय कार्रवाई जारी है। मंदिर के ट्रस्टी डॉ. रमाकांत रावत का कहना है कि यदि ठीक से नपाई की जाती तो ये स्थिति कतई न बनती। ऐसा इसलिए क्योंकि मंदिर बकायदे राजपत्र में प्रकाशित है। सरकारी रिकॉर्ड में इसका अस्तित्व 1944 से मिलता है लेकिन दरअसल, ये मंदिर अति प्राचीन है। यह पुरातात्विक महत्व का एशिया का संभवतः एकमात्र विशालतम शीतलामाई मंदिर है। इसके नाम एक वार्ड जाना जाता है।
सौ वर्षों में पहली बार मालवा अंचल में 'सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय' के उद्देश्य से हो रहे कोटिरूद्र महायज्ञ के लिए साँवेर रोड धरमपुरी स्थित विश्वनाथधाम सज-सँवरकर तैयार है। यहाँ 6 से 31 दिसंबर तक हथियाराम मठ बनारस के वरिष्ठ महामंडलेश्वर स्वामी बालकृष्ण यतिजी के सान्निध्य में देशभर के 330 चुनिंदा विद्वान आचार्य 3 करोड़ रूद्रपाठ के साथ भगवान काशी विश्वनाथ का रूद्राभिषेक करेंगे। 




अनुष्ठान के लिए 18 एकड़ भूमि पर यज्ञशाला व प्रवचन पांडाल तथा 21 सौ फुट वर्गाकार व 60 फुट चौड़ा परिक्रमा मार्ग बनाया गया है। 




महायज्ञ का शुभारंभ 6 दिसंबर को सुबह 9.15 बजे होगा। यह दो चरणों में होगा। 6 से 31 दिसंबर तक प्रतिदिन सुबह 9 से दोपहर 1 बजे व दोपहर 2 से शाम 6 बजे तक होने वाले अभिषेकात्मक यज्ञ में एक प्रधान यजमान और 11 यजमान काशी विश्वनाथ का रूद्राभिषेक करेंगे। इस दौरान प्रतिदिन गौदुग्ध की अखंडधारा से मुख्य यजमान द्वारा दुग्धाभिषेक भी किया जाएगा। 



यह अनुष्ठान बनारस के राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त यज्ञाचार्य पं.लक्ष्मीकांत दीक्षित के निर्देशन में होगा। इसके बाद 1 से 11 जनवरी तक हवनात्मक यज्ञ के तहत 150 यजमान 25 कुण्डों पर विद्वान ब्राह्मणों के निर्देशन में कोटिरूद्र महायज्ञ संपन्न करेंगे। इसकी शुरुआत 1 जनवरी को ऐतिहासिक शोभायात्रा के साथ होगी। 1 जनवरी से वृंदावन के प्रख्यात रासाचार्य पद्मश्री स्वामी रामस्वरूपजी शर्मा के निर्देशन में रासलीला और 2 जनवरी से राजकोट की प्रख्यात भागवत मर्मज्ञ मीराबेन के सान्निध्य में भागवत कथा होगी। जिसका आयोजन दोपहर 2 बजे से होगा। 
                                                         बापरे  बाप जरा विचार तो करलें क्या यह  महा यग्य अश्व मेघ यग्य से भी बड़ा हें |जब अश्वमेघ यग्य सम्पूर्ण नही हो सका तो इस की क्या गारंटी है? 
क्या विद्वानों को और कोई साधन सभी के हित के लिए नही सोचना चाहिए था?

संत तरुण सागर जी महाराज

प्रख्यात जैन संत तरूण सागर ने कहा है कि धर्मग्रंथ गीता किसी एक धर्म की जागीर नहीं है और न ही उस पर हिंदुओं का एकाधिकार है। मुनिश्री तरूण सागर ने पत्रकारों से बातचीत में कल रायपुर में यह उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि गीता में कहीं भी हिंदू का उल्लेख नहीं है। गीता पर सबका अधिकार है।




उन्होंने साम्प्रदायिक सौहार्द को जरूरी बताते हुए कहा कि हिंदू और मुसलमान देश की दो आँखें हैं। भारत में सांप्रदायिकता मुल्क के हिसाब से नहीं है। रमजान लिखते हैं तो राम से शुरुआत करते हैं दिवाली लिखते हैं अली से खत्म करते हैं।



उन्होंने कहा सत्ता और भ्रष्टाचार का करीबी रिश्ता है। सत्ता और राजनीति को काजल की कोठरी करार देते हुए कहा कि इस पर अगर कोई घुसे और बेदाग निकल जाए यह संभव नहीं है, लेकिन जो बेदाग निकलते हैं उन्हें प्रणाम करना चाहिए। राजनीति में जो ईमानदार लोग भी हैं उनमें साहस नहीं है। ईमानदारी के साथ-साथ साहसी भी होना जरूरी है, बुराइयों के खिलाफ लड़ने का साहस होना चाहिए। 





जीवन जीने के दो तरीके बताते हुए मुनिश्री ने कहा कि पहला जो चल रहा है उसके साथ चलना। दूसरा जो हो रहा है उसके विपरीत चलना। प्रवाह के विरोध के लिए ऊर्जा चाहिए। गंगोत्री की गंगासागर से यात्रा मुर्दा भी कर लेता है, लेकिन गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा करने के लिए साहस चाहिए। प्रवाह के विरुद्ध बहने के लिए साहस जरूरी है। सामाजिक-वैश्विक समस्याओं से निपटने के लिए साहस चाहिए।



जैन सन्त ने एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि आज देश में गाय धर्मनीति और राजनीति के बीच पीस रही है। जब तक इन्हें इन बँधनों से मुक्त नहीं करेंगे गौरक्षा असंभव है। गौरक्षा को धर्मनीति और राजनीति से निकालकर अर्थनीति से जोड़ना होगा तभी गौरक्षा आंदोलन सफल होगा। उन्होंने एक अन्य प्रश्न के उत्तर में कहा कि जैन धर्म के सिद्धांत दुनिया को सुधारने के लिए उपयोगी है अच्छे हैं, लेकिन उसकी मार्केटिंग नहीं हो पा रही है इसलिए पिछड़ रहा है।



धर्म और राजनीति के संबंध में उन्होंने कहा कि धर्म गुरु है और राजनीति शिष्य। राजनीति अगर गुरु के समक्ष आती है तो यह समस्या खड़ी हो जाती है। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के संबंध में पूछे गए सवाल पर संतश्री ने कहा कि वहाँ हजारों लाखों लोगों की आस्था टिकी हुई है इसलिए कानून के दायरे में रहकर मंदिर निर्माण का काम होना चाहिए। धर्म को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि धर्म परिवर्तन का नाम है। यह बेचने-खरीदने की चीज नहीं है। धर्म जीने की चीज है प्रदर्शन का नहीं।

सोमवार, ३० नवम्बर २००९

संदेश मेरे लिए देखें आप सभी

- श्री भगवान को प्रेम से जगाओ आपका भाग्य जागेगा। 


- श्री भगवान को स्नान कराओ तो आपके सब पाप धुल जाएँगे। 

- श्री भगवान को चरणामृत प्रेम से पान कराओ आपकी मनोवृत्ति बदल जाएगी। 



- श्री भगवान को तिलक लगाओ आपको सर्वत्र सम्मान मिलेगा। 

- श्री भगवान के चरणों का तिलक स्वयं भी लगाओ आपका मन शां‍त होगा। 

- श्री भगवान को भोग लगाओ आपको संसार के सभी भोग मिलेंगे। 



- श्री भगवान का प्रसाद स्वयं भी पाओ, आप निष्‍पाप हो जाओगे।

- श्री भगवान के सम्मुख दीप जलाओ आपका जीवन प्रकाशवान होगा। 

- श्री भगवान को धूप लगाओ आपके दुख के बादल स्वत: छट जाएँगे। 



- श्री भगवान को पुष्प अर्पित करो आपके जीवन की बगिया महकेगी। 

- श्री भगवान का भजन-पाठ करो आपका यश बढ़ेगा। 

- श्री भगवान को प्रणाम करो संसार आपके आगे झुकेगा। 



- श्री भगवान के आगे घंटनाद करो आपकी दुष्प्रवृत्तियाँ दूर होंगी। 

- श्री भगवान के आगे शंखनाद करो आपकी काया निरोगी रहेगी।

- श्री भगवान को प्रेम से शयन कराओ आपको चैन की नींद आएगी। 



- श्री भगवान के दर्शन करने नित्य मंदिर जाओ आपके दुख में प्रभु दौड़े चले आएँगे। 

- श्री भगवान को अर्पण कर ही वस्तु का उपभोग करो आपको परमानंद मिलेगा। 

- श्री भगवान को लाड़-प्यार से खिलाओ संसार आप पर रिझेगा। 



- श्री भगवान से ही माँगो जो चाहोगे वो आपको मिलेगा। (अन्य से नहीं) 

- श्री भगवान का प्रसाद मान सुख-दुख भोगो आप सदा सुखी रहेंगे। 

- श्री भगवान का ध्यान करो प्रभु अंत समय तक आपका ध्यान रखेंगे। 

सौजन्य से - श्री रामभक्त हनुमान मंदिर

अधुरा मन्दिर


क्या आपने ऐसा कोई प्राचीन अधूरा मंदिर देखा है जिसकी छत न हो और जिसमें किसी देवता की मूर्ति भी स्थापित न की गई हो। यदि नहीं तो आओ चलते हैं एक ऐसे ही मंदिर में।




इस मंदिर के बारे में कई तरह की किंवदंतियाँ है। जिनमें से दो किंवदंतियाँ ज्यादा प्रचलित है। इस मंदिर की दास्तान जुड़ी हुई है नेमावर के सिद्धनाथ मंदिर से। एक बार की बात है नेमावर के सिद्धेश्वर क्षेत्र में कौरव और पांडवों का रुकना हुआ।



एक शाम कुंती ने देखा की कौरवों ने इस क्षेत्र में एक भव्य मंदिर बनाया है तब उन्होंने पांडवों से कहा कि तुम भी इसी तरह का एक भव्य मंदिर बनाओ जिससे कौरवों के समक्ष हमारी प्रतिष्ठा बनी रहे और तुम्हारे पास इसे बनाने के लिए सिर्फ एक रात ही बची है।



उसी शाम कौरवों ने पांडवों से कहा की हमने इस क्षेत्र में एक मंदिर बनाया है। पांडवों ने कहा कि हमने भी इस क्षेत्र में एक मंदिर बनाया है। कौरवों ने कहा कि हमने तो आपको बनाते हुए देखा नहीं और यदि बनाया भी है तो हम पहले ही बता दे कि हमारा मंदिर पूर्वमुखी है और आपका?





NDपांडवों ने कहा कि हमारा पश्चिममुखी मंदिर है। इस पर कौरवों ने कहा कि ठीक है। तब तो हम कल सवेरे आपका मंदिर देखने चलेंगे।



पांडवों को अब यह चिंता सताने लगी कि आखिर रात भर में मंदिर कैसे बन पाएगा जबकि हमने कौरवों से झूठ कहा था कि हमने भी मंदिर बनाया है। ऐसे में भीम ने कहा कि आप चिंता न करें। भीम ने कुंती को वचन दिया की मैं रात भर में आपके कहे अनुसार मंदिर बना दूँगा।



रात्रि में भीम ने कौरवों के बनाए मंदिर के पास स्थित पहाड़ी पर मंदिर बनाने का कार्य आरंभ किया। लेकिन अर्ध रात्रि से ऊपर बीत जाने पर भी वह मंदिर नहीं बना पाए, तब उक्त मंदिर को अधूरा ही छोड़कर भीम ने जहाँ कौरवों ने मंदिर बनाया था उस उक्त पूर्वाभिमुखी मंदिर को घुमाते हुए पश्चिममुखी कर दिया।



दूसरी कहानी इस तरह की है कि कुंती ने भीम से कहा कि मेरे लिए एक रात में एक मंदिर बनाओ। यदि एक ही रात में नहीं बनता है तो हम यह स्थान छोड़ देंगे। भीम के लाख प्रयास के बाद भी जब मंदिर पर छत लगाने का काम शुरू किया तब भौर हो चुकी थी ऐसे में भीम ने मंदिर को बनाना छोड़ दिया। वचनानुसार ‍पांडवों ने कुंतीसहित उक्त स्थान को छोड़ दिया।

शनिवार, २८ नवम्बर २००९

gita ki booli: श्री श्री श्रीमद -भागवत -गीता

gita ki booli: श्री श्री श्रीमद -भागवत -गीता

ajb teri maya


jagrn ,अजूबा बना जिराफ, कर रहा योगवाशिंगटन, एजेंसी : सीधी और लंबी गर्दन जिराफ की खासियत है। अपनी लंबी गर्दन के कारण ही जिराफ का खाना-पीना हो पाता है। पर ओहियो के टुलसा चिडि़याघर में पल रहा एक जिराफ इन दिनों दर्शकों के कौतूहल का केंद्र बना हुआ है। एमली नाम की इस मादा जिराफ की गर्दन सीधी न होकर हुक की तरह मुड़ी हुई है। इसके बावजूद वह आराम से खाना खा लेती है। ऐसे में वह आम लोगों के लिए अजूबा बनी हुई है। चिडि़याघर के कर्मचारियों का कहना है कि गर्दन मुड़ी होने के बावजूद 11 फुट लंबी एमली सामान्य है। हालांकि डाक्टर उसकी गर्दन सीधी करने की कोशिश भी कर रहे हैं। यहां तक कि उसे योग का अभ्यास भी कराया जा रहा है। जिराफ की गर्दन की हड्डियां काफी मजबूत और सीधी होती हैं। इस कारण ये ऊंचे पेड़ों से अपना भोजन लेने में सक्षम होते हैं। लेकिन पांच साल की एमली के मामले में ऐसा नहीं है। इसलिए वह डाक्टरों के लिए भी शोध का विषय बनी हुई है। डाक्टर यह पता लगा रहे हैं कि एमली में इस विकृति का क्या कारण है। वे यह भी शोध कर रहे हैं कि विकृति के बावजूद एमली आम जिराफ की तरह ही कैसे खा-पी लेती है। एमली का उपचार कर रहे डा. बैकस ने कहा कि गर्दन में खिंचाव आने पर मनुष्य योग का सहारा लेते हैं। उसी तरह एमली की गर्दन सीधी करने के लिए योग का सहारा लिया जा रहा है। उसे दर्द निवारक दवाएं भी दी जा रही हैं। चिडि़याघर के निदेशक ने कहा कि एमली का अर्थ होता है होप यानी उम्मीद। हमें भी उसकी गर्दन ठीक हो जाने की उम्मीद है।

शुक्रवार, ९ अक्तूबर २००९

भुत

प्रेत जिन पिशाच का सनातन धर्म से सम्बन्ध?
सनातन धर्म में भूतों का विशेष महत्व हे |गीता शास्त्र में भगवान क्ह्तेहे की बहुत प्रेत पिशाच जिन की हम बुरी या भली आत्मा के रूप में कल्पना करते हें ओर समाज में इन का 
वर्चस्व भी देखा करते हें |वास्तव में वही आत्मा परमात्मा होती हे |परमात्मा का कहना हे की तुम मेरी ओर एक कदम चलो में तुम्हारी ओर चार कदम बडूगा |जब हम उस परमात्मा का चिन्तन खुदा यशु अकाल्पुर्ख या भूत प्रेत जिन पिशाच आदि के रूप में करते हैं तब परमात्मा उसी रूप में चार कदम हमारी ओर बड़ता हे , भगवान कृष्ण ने मिटटी खा कर माता के कहने पर अपना मुह खोल कर दिखाया तब माता को उन के मुह में बह्मांड नजर आया था |माता उन को पहिचान नही सकीं और उन पर किसी बला का साया समझ बैठीं |यदि यह उन को ब्रह्मांड का स्वामी मान लेतीं तो उन को तभी पता चल जाता की कृष्ण उन का पुत्र नही भगवान हेँ |इस के बाद श्री कृष्ण की लीलाएं किसी भूत प्रेत से कम नही थीं |हमारे शस्त्रों ने तो यहाँ तक कहा हे कि जेसा स्वरूप हम अपने मष्तिष्क में बनाते हेँ भगवान उसी रूप के हो जाते हैं |सागर का जल सागर नदी का जल नदी गिलास कटोरी का जल वैसा ही रूप धारण कर लेता हे भगवान भी जिस रूप में खोजे जाते है उसी रूप के होकर वैसे ही कर्म करने लगते हैं |अर्जुन भी भगवान का विराट रूप देख कर भयभीत हो उनसे शांत स्वरूप में दर्शन देने का आग्रह करते हैं |अतः प्रमाणित होता हे कि सदा शांत स्वरूप ही पूजने के योग्य होता हे |क्रोधित स्वरूपों की कल्पना मात्र क्रोध उत्पन कर उत्पात उत्पन करती हें |क्या यह खोज का वेज्ञानिक विषय नही हो सकता ?या ओझा तांत्रिकों का विषय अथवा दिमाग के डाक्टरों की कमाई का विषय मात्र इस लिए हो गया की सनातन धर्म को हम भूल गये हैं ?सनातन के मूल सिधान्तों का अनुसरण न करने से भूत प्रेत जिन के चक्र में दुखी होना स्वभाविक ही है |यदि हम देवता ही मान कर चलें तो भी देवता लोग किसी को नुक्सान नहीं पहुंचाते 
    (सनातन धर्म बेशक पुराना है पर प्रयोग नया है )

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