सोमवार, 28 दिसंबर 2009

अब पत्थर से टूटा विमान का विंडस्क्रीन

कभी पायलटों की हड़ताल तो कभी एयर होस्टेस के साथ धक्का-मुक्की। कभी उड़ान के दौरान शराब पीकर पंगेबाजी का किस्सा तो कभी टायलेट में छिपकर यात्रा करने वाले व्यक्ति की बरामदगी। एयर इंडिया के साथ इस तरह की विचित्र घटनाएं अब आम हो गई हैं। ताजा घटनाक्रम में इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पत्थर टकराने से एयर इंडिया के मुंबई जाने वाले विमान की उड़ान से पहले विंडस्क्रीन टूट गई जिससे यात्रियों को दूसरे विमान से भेजना पड़ा। उड्डयन महानिदेशालय ने इस घटना की जांच के आदेश दिए हैं। घटना परसों शाम को हुई। उस वक्त एयर इंडिया का ए-321 विमान दिल्ली से मुंबई की उड़ान (संख्या आईसी 836) की तैयारी कर रहा था और टैक्सीवे-13 से रनवे की तरफ बढ़ रहा था।

शनिवार, 26 दिसंबर 2009

भोग में रत भी हो सकता है योगी

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योगरतो वा भोगरतो वा संङ्गरतो वा संङ्गविहीना:।



यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं नन्दति नन्दति नन्दत्येव।।


जब कोई आदमी अध्यात्म में पूरी तरह से स्थिर हो जाता है, फिर वह संसार के किसी भी कोने में चला जाए, उसकी आंतरिक स्थिति पूरी तरह से तृप्त और संतुष्ट बनी रहती है। फिर वह भोग में रहे या योग में, संसार की नजरों में लगेगा वह भोगी है। लेकिन अन्त:करण में वह बिल्कुल भोगी नहीं है। तो भोग में रहो या योग में रहो, संग में रहो या संग विहीन। लेकिन वह आदमी सुखी है -तीन बार बोला नन्दति, नन्दति, नन्दति। शरीर से सुख, मन से सुख, बुद्धि से सुख। जिसका ध्यान, जिसकी एकाग्रता, जिसके दिमाग का एक तार परमात्मा के साथ जुड़ा हुआ है। नन्दति-नन्दति-नन्दत्येव -वही सुखी है।






लोग सोचते हैं कि जो आदमी भोग में रत है, वह आध्यात्मिक कैसे हो सकता है। भगवान श्रीकृष्ण की 16108 पत्नियाँ होने के बावजूद उनका नाम था नित्य ब्रह्मचारी। दुर्वासा ऋषि हजारों-हजारों टन खाना खा जाते थे, लेकिन उनका नाम था नित्य उपवासी। कुरुक्षेत्र की रणभूमि में भी युद्ध करते वक्त सारे योद्धाओं ने पूरी तरह से सज संवरकर गहने पहन कर युद्ध किए थे। इसका मतलब साफ है कि हमारे शास्त्र किसी भी भोग को बाहरी रूप से अपनाने से कभी भी मना नहीं करते। हां, बात सारी यह है कि जब आप भोग कर रहे हों तो आपकी आन्तरिक स्थिति कैसी है। यदि आन्तरिक स्थिति उसको महत्व देती है तो चाहे बाहर से आप आध्यात्मिक हो, अन्त:करण में आप भोगी होंगे।






दो मित्र थे। शाम का समय था। दोनों ने सोचा शाम कैसे बिताई जाए। तो एक मित्र ने सलाह दी कि हम किसी शराबखाने में चलते हैं। दूसरे मित्र ने सलाह दी, हम कहीं सत्संग सुनने चलते हैं। दोनों अपनी बात पर अडिग रहे। एक शराबखाने में चला गया, दूसरा सत्संग सुनने चला गया। पर सत्संग में जो स्वामी जी थे, उनका प्रवचन उस व्यक्ति को बोर लग रहा था। ध्यान उस सत्संग में बिल्कुल नहीं लग रहा था। पर ध्यान कहां पर था? मदिरालय में चला गया था।






और जो मदिरालय में बैठा व्यक्ति था, वह मदिरालय में तो बैठा था लेकिन सोच रहा था -यार! क्या मैंने जिन्दगी खराब कर ली। अपना सारा जीवन खराब कर लिया। मेरे से बढ़िया तो वह व्यक्ति है जो मन्दिर में बैठा कीर्तन सुन रहा है। तो एक सत्संग में था, लेकिन ध्यान उसका शराब खाने पर था, और एक शराबखाने में था लेकिन उसका ध्यान सत्संग में था।






कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि अध्यात्म के लिए आप शराबखाने चले जाइए। तात्पर्य यह है कि इससे फर्क नहीं पड़ता कि आपका शरीर किधर है। फर्क इससे पड़ता है कि आपका मन और बुद्धि किधर है। जिसका मन परमात्मा पर लगा हुआ है, वही सुखी है। नन्दति-नन्दति-नन्दत्येव। वह सुखी है, ज्ञानी है -चाहे भोग में मगन हो या योग में। संगी साथ हो या अकेला चले।






तो यह हमारे यहां जीवन का सार है कि आप चाहे किसी भी रूप में हों, किसी भी स्तर पर हों, आपका ध्यान परमात्मा पर लगा रहे। आप कहेंगे, यह तो बड़ा मुश्किल है। मुश्किल नहीं है। महत्व की बात है। आप कहेंगे, यह तो संभव नहीं कि हम काम भी करते रहें और परमात्मा पर ध्यान भी लगाकर रखें।






भक्त गर्भवती मां की तरह है। गर्भवती मां उठती है, बैठती है, बोलती है, हँसती है, चलती है, सोती है, खाती है, काम करती है लेकिन उसका एक ध्यान हमेशा अपने गर्भ पर रहता है। भक्त एक बच्चे की तरह है, जिसका जन्मदिन है और जिस दिन उसका जन्मदिन है, वह बच्चा उठता है, बैठता है, सोता है, हंसता है, खाता है, पीता है, लेकिन उसका एक ध्यान अपने जन्मदिन पर लगा रहता है।






कोई बच्चा अपने जन्मदिन पर ध्यान क्यों रखता है? क्योंकि जन्मदिन को वह महत्व देता है। यदि एक मां ध्यान रखती है अपने बच्चे पर तो मतलब है मां अपने बच्चे को महत्व देती है। ऐसे ही संत लोग हमें कहते हैं कि एक ध्यान परमात्मा पर लगाकर रखो।



(विवेक निकेतन एजुकेशनल ट्रस्ट के सौजन्य से)

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

हम गृहस्थ जीवन में रहकर भी साधुता प्राप्त कर सकते हैं। उक्त उद्गार प्रवचन में स्वामी राजेश्वरानंद सरस्वती ने भरत प्रसंग पर व्यक्त किए। उन्होंने प्रसंग की चौपाई तात भरत तुम सब विधि साधु को केन्द्रित करते हुए कहा कि भरत के जीवन में क्षमा, धैर्य, करुणा, त्याग, प्रेम व साहस का जो अद्भुत समन्वय रहा वह सबमें होना चाहिए।




उन्होंने कहा कि भगवान राम के वन जाने पर भरत ने अयोध्या की राज व्यवस्था को जिस तरह संभाला वह आज के संदर्भ में अनुकरणीय है। भरत निष्काम भक्ति के प्रतीक हैं। साथ ही उनके मन में जनकल्याण की भावना भरी हुई है। वे भक्ति के माध्यम से समाज को यह संदेश देना चाहते हैं कि हम एक संयमित जीवन शैली अपनाएँ और स्वयं का एवं समाज का कल्याण करें।



स्वामी जी ने साधुता का अर्थ बताते हुए कहा कि भरत सब प्रकार से साधु हैं,इसका आध्यात्मिक अर्थ है कि हमें भीतर और बाहर समान रूप से बदलना होगा। अकेले साधु का वेश धारण करने से कोई साधु नहीं हो जाता है। व्यक्ति को भीतर से भी बदलना जरूरी है।




भारत वर्ष का विश्व में महत्वपूर्ण स्थान इसलिए है कि हमारे यहाँ रामचरित मानस जैसा सद्ग्रंथ है जो हमें जीवन व्यवहार की शिक्षा देता है।