शनिवार, 26 दिसंबर 2009

भोग में रत भी हो सकता है योगी

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योगरतो वा भोगरतो वा संङ्गरतो वा संङ्गविहीना:।



यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं नन्दति नन्दति नन्दत्येव।।


जब कोई आदमी अध्यात्म में पूरी तरह से स्थिर हो जाता है, फिर वह संसार के किसी भी कोने में चला जाए, उसकी आंतरिक स्थिति पूरी तरह से तृप्त और संतुष्ट बनी रहती है। फिर वह भोग में रहे या योग में, संसार की नजरों में लगेगा वह भोगी है। लेकिन अन्त:करण में वह बिल्कुल भोगी नहीं है। तो भोग में रहो या योग में रहो, संग में रहो या संग विहीन। लेकिन वह आदमी सुखी है -तीन बार बोला नन्दति, नन्दति, नन्दति। शरीर से सुख, मन से सुख, बुद्धि से सुख। जिसका ध्यान, जिसकी एकाग्रता, जिसके दिमाग का एक तार परमात्मा के साथ जुड़ा हुआ है। नन्दति-नन्दति-नन्दत्येव -वही सुखी है।






लोग सोचते हैं कि जो आदमी भोग में रत है, वह आध्यात्मिक कैसे हो सकता है। भगवान श्रीकृष्ण की 16108 पत्नियाँ होने के बावजूद उनका नाम था नित्य ब्रह्मचारी। दुर्वासा ऋषि हजारों-हजारों टन खाना खा जाते थे, लेकिन उनका नाम था नित्य उपवासी। कुरुक्षेत्र की रणभूमि में भी युद्ध करते वक्त सारे योद्धाओं ने पूरी तरह से सज संवरकर गहने पहन कर युद्ध किए थे। इसका मतलब साफ है कि हमारे शास्त्र किसी भी भोग को बाहरी रूप से अपनाने से कभी भी मना नहीं करते। हां, बात सारी यह है कि जब आप भोग कर रहे हों तो आपकी आन्तरिक स्थिति कैसी है। यदि आन्तरिक स्थिति उसको महत्व देती है तो चाहे बाहर से आप आध्यात्मिक हो, अन्त:करण में आप भोगी होंगे।






दो मित्र थे। शाम का समय था। दोनों ने सोचा शाम कैसे बिताई जाए। तो एक मित्र ने सलाह दी कि हम किसी शराबखाने में चलते हैं। दूसरे मित्र ने सलाह दी, हम कहीं सत्संग सुनने चलते हैं। दोनों अपनी बात पर अडिग रहे। एक शराबखाने में चला गया, दूसरा सत्संग सुनने चला गया। पर सत्संग में जो स्वामी जी थे, उनका प्रवचन उस व्यक्ति को बोर लग रहा था। ध्यान उस सत्संग में बिल्कुल नहीं लग रहा था। पर ध्यान कहां पर था? मदिरालय में चला गया था।






और जो मदिरालय में बैठा व्यक्ति था, वह मदिरालय में तो बैठा था लेकिन सोच रहा था -यार! क्या मैंने जिन्दगी खराब कर ली। अपना सारा जीवन खराब कर लिया। मेरे से बढ़िया तो वह व्यक्ति है जो मन्दिर में बैठा कीर्तन सुन रहा है। तो एक सत्संग में था, लेकिन ध्यान उसका शराब खाने पर था, और एक शराबखाने में था लेकिन उसका ध्यान सत्संग में था।






कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि अध्यात्म के लिए आप शराबखाने चले जाइए। तात्पर्य यह है कि इससे फर्क नहीं पड़ता कि आपका शरीर किधर है। फर्क इससे पड़ता है कि आपका मन और बुद्धि किधर है। जिसका मन परमात्मा पर लगा हुआ है, वही सुखी है। नन्दति-नन्दति-नन्दत्येव। वह सुखी है, ज्ञानी है -चाहे भोग में मगन हो या योग में। संगी साथ हो या अकेला चले।






तो यह हमारे यहां जीवन का सार है कि आप चाहे किसी भी रूप में हों, किसी भी स्तर पर हों, आपका ध्यान परमात्मा पर लगा रहे। आप कहेंगे, यह तो बड़ा मुश्किल है। मुश्किल नहीं है। महत्व की बात है। आप कहेंगे, यह तो संभव नहीं कि हम काम भी करते रहें और परमात्मा पर ध्यान भी लगाकर रखें।






भक्त गर्भवती मां की तरह है। गर्भवती मां उठती है, बैठती है, बोलती है, हँसती है, चलती है, सोती है, खाती है, काम करती है लेकिन उसका एक ध्यान हमेशा अपने गर्भ पर रहता है। भक्त एक बच्चे की तरह है, जिसका जन्मदिन है और जिस दिन उसका जन्मदिन है, वह बच्चा उठता है, बैठता है, सोता है, हंसता है, खाता है, पीता है, लेकिन उसका एक ध्यान अपने जन्मदिन पर लगा रहता है।






कोई बच्चा अपने जन्मदिन पर ध्यान क्यों रखता है? क्योंकि जन्मदिन को वह महत्व देता है। यदि एक मां ध्यान रखती है अपने बच्चे पर तो मतलब है मां अपने बच्चे को महत्व देती है। ऐसे ही संत लोग हमें कहते हैं कि एक ध्यान परमात्मा पर लगाकर रखो।



(विवेक निकेतन एजुकेशनल ट्रस्ट के सौजन्य से)

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