गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

अवतार

अवतार

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'अवतार का अर्थ उतरना है। हिन्दू मान्यता के अनुसार जब जब दुष्टों का भार पृथ्वी पर बढ़ता है और धर्म की हानि होती है तब तब पापियों का संहार करके भक्तों की रक्षा करने के लिये भगवान अपने अंशावतारों व पूर्णावतारों से पृथ्वी पर शरीर धारण करते हैं।अवतार यानि अवतरित होना ना कि जन्म लेना ,प्रकट होना जिस प्रकार क्रोध प्रकट होता है  वह अवतरित नही होता उसे तो अहंकार जन्म देता है परन्तु अवतार का जन्म नही होता जन्म दो के संयोग से प्राप्त होता है ,जेसे अहंकार और इर्षा का संयोग क्रोध जन्मता है |अवतार केवल सनातन धर्म को अपनी लीला के द्वारा प्रेक्टिकली कर के दिखाता है |जो - जो कर्म अवतार करता है ,उसे अन्य सहायक अवतार नही कर पाते वह उनका बखान प्रचार करने वाले प्रचारक भर होते हैं बाकि रही बात अंश की हर जड़-चेतन भूत प्राणी उसी का अंश मात्र होता है |अवतार लेने के समय भगवान माया को अपने आधीन कर लेते हैं |

सुखसागर के अनुससार भगवान के निम्न अवतार हैं -
भगवान ने कौमारसर्ग में सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत्कुमार ब्रह्मऋषियों का अवतार लिया। यह उनका पहला अवतार था।
पृथ्वी को रसातल से लाने के लिये भगवान ने दूसरी बार वाराह का अवतार लिया।
तीसरी बार ऋषियों को साश्वततंत्र, जिसे कि नारद पाँचरात्र भी कहते हैं और जिसमें कर्म बन्धनों से मुक्त होने का निरूपन है, का उपदेश देने के लिये नारद जी के रूप में अवतार लिया।
धर्म की पत्नी मूर्ति देवी के गर्भ से नारायण, जिन्होंने बदरीवन में जाकर घोर तपस्या की, का अवतरण हुआ। यह भगवान का चौथा अवतार है।
पाँचवाँ अवतार माता देवहूति के गर्भ से कपिल मुनि का हुआ जिन्होंने अपनी माता को सांख्य शास्त्र का उपदेश दिया।
छठवें अवतार में अनुसुइया के गर्भ से दत्तात्रयेय प्रगट हुये जिन्होंने प्रह्लाद, अलर्क आदि को ब्रह्मज्ञान दिया।
सातवीं बार आकूति के गर्भ से यज्ञ नाम से अवतार धारण किया।
नाभिराजा की पत्नी मेरु देवी के गर्भ से ऋषभदेव के नाम से भगवान का आठवाँ अवतार हुआ। उन्होंने परमहँसी का उत्तम मार्ग का निरूपण किया।
नवीं बार राजा पृथु के रूप में भगवान ने अवतार लिया और गौरूपिणी पृथ्वी से अनेक औषधियों, रत्नों तथा अन्नों का दोहन किया।
चाक्षुषमन्वन्तर में सम्पूर्ण पृथ्वी के जलमग्न हो जाने पर पृथ्वी को नौका बना कर वैवश्वत मनु की रक्षा करने हेतु दसवीं बार भगवान ने मत्स्यावतार लिया।
समुद्र मंथन के समय देवता तथा असुरों की सहायता करने के लिये ग्यारहवीं बार भगवान ने कच्छप के रूप में अवतार लिया।
बारहवाँ अवतार भगवान ने धन्वन्तरि के नाम से लिया जिन्होंने समुद्र से अमृत का घट निकाल कर देवताओं को दिया।
मोहिनी का रूप धारण कर देवताओं को अमृत पिलाने के लिये भगवान ने तेरहवाँ अवतार लिया।
चौदहवाँ अवतार भगवान का नृसिंह के रूप में हुआ जिन्होंने हिरण्यकश्यपु दैत्य को मार कर प्रह्लाद की रक्षा की।
दैत्य बलि को पाताल भेज कर देवराज इन्द्र को स्वर्ग का राज्य प्रदान करने हेतु पन्द्रहवीं बार भगवान ने वामन के रूप में अवतार लिया।
अभिमानी क्षत्रिय राजाओं का इक्कीस बार विनाश करने के लिये सोलहवीं बार परशुराम के रूप में अवतार लिया।
सत्रहवीं बार पाराशर जी के द्वारा सत्यवती के गर्भ से भगवान ने वेदव्यास के रूप में अवतार धारण किया जिन्होंने वेदों का विभाजन कर के अने उत्तम ग्रन्थों का निर्माण किया।
राम के रूप में भगवान ने अठारहवीं बार अवतार ले कर रावण के अत्याचार से विप्रों, धेनुओं, देवताओं और संतों की रक्षा की।
उन्नसवीं बार भगवान ने सम्पूर्ण कलाओं से युक्त कृष्ण के रूप में अवतार लिया।
बुद्ध के रूप में भगवान का बीसवाँ अवतार हुआ।
कलियुग के अन्त में इक्कीसवीं बार विष्णु यश नामक ब्राह्मण के घर भगवान का कल्कि अवतार होगा।

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