शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

भगवान

मनुष्य को किसी भी दशा में पशु नहीं कहा जा सकता है। ईश्वर की रची सृष्टि में विभिन्न प्राणियों में से एक है मनुष्य, दूसरे हैं पशु और तीसरे हैं वनस्पति। इन तीनों के भी कई विभिन्न आकार व प्रकार होते  हैं, सब एक जैसे नहीं होते हैं।
शिशु 
हर मनुष्य जन्म के बाद कुछ समय तक पशुवत ही रहता है। उसकी बुद्धि का विकास नहीं हुआ होता। इसी कारण हम कहते हैं कि वह शिशु है। उसने अवश्य गलत किया है, किन्तु उसे छोड़ दो, कुछ न कहो, उसे क्षमा कर दो, क्योंकि उसमें बुद्धि-वृत्ति नहीं जगी होती है। मजे की बात तो यह है कि शिशु के मल-मूत्र से भी हम घृणा नहीं करते हैं, जैसे पशु के विषय में। वह शिशु जब थोड़ा बड़ा होता है, तब उसमें विवेक का जागरण होता है।विवेक ही ज्ञान है जिस को जान्ने के लिये किसी गुरु कि आवश्यकता नही पड़ी ,अंदर से स्वयम ही प्रकट होने लग गया 
अंदर ही अंदर से विवेक को जागृत करने वाली उस शक्ति का नाम ही ईश्वर,परमेश्वर,आल्हा ,अकाल्पुर्ख है 
इसी शक्ति को जगाना तपस्या करने के बराबर होता है , यदि इसी को गुरु मान लिया जावे तो भले बुरे का ज्ञान स्वयम ही होना शुरू हो जाता है ,तब मनुष्य ज्ञानी होजाता है 
ज्ञान दूध से निकला उस माखन के समान होता है जो दुबारा से ढूध नही बन सकता 
अतः भगवान से बड़ा कोई गुरु नही हो सकता उसके बराबर होना तो बहुत दूर की बात हो गी  कलयुग में ऐसे पाखंडी गुरुओं के ही दर्शन होते हैं ,उस गुरु भगवान के नही जब की कलयुग का ही कहना है कि यदि कोई सचे हृदय से भगवान को अपना गुरु मानता है तो हे प्रभु आप को उसे तुरंत दर्शन देने होंगे

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