सोमवार, 30 नवंबर 2009

भ्ज्ञान जाने

क्या पत्थर की सात किलो वजनी प्रतिमा पानी पर तैर सकती है?..क्या प्रतिमा के तैरने या न तैरने से आने वाले अच्छे या बुरे समय का पता लगाया जा सकता है? आइए चलते हैं आस्था या अंधविश्वास की इस बार की कड़ी में इन्हीं प्रश्नों के उत्तर खोजने...?


              अपनी राय जरुर दें                                                                                                               मध्यप्रदेश के देवास जिले से 45 किमी दूर हाटपीपल्या गाँव के नृसिंह मंदिर की प्रतिमा प्रतिवर्ष नदी में तैरती है। आखिर कैसे घटित होता है यह चमत्कार |
                                                                                                                                                            भगवान
 ही जाने \



प्रतिवर्ष भादवा सुदी 11 (डोल ग्यारस) पर सेंधला नदी पर पूजा-अर्चना कर पूरे सम्मान के बाद प्रतिमा तैराई जाती है। इस चमत्कार को देखने के लिए हजारों लोगों की भीड़ जुट जाती है, परंतु आज के इस आधुनिक युग में यह बात आश्चर्यजनक लगती है।






नृसिंह मंदिर के प्रमुख पुजारी गोपाल वैष्णव ने कहा कि यदि भगवान की प्रतिमा एक बार तैरती है तो साल के चार माह अच्छे माने जाते हैं और यदि तीन बार तैरे तो पूरा साल अच्छा बीतता है।



यहाँ के निवासी सोहनलाल कारपेंटर का कहना है कि वे भगवान नृसिंह की प्रतिमा के तैरने के चमत्कार को पिछले 20-25 वर्षों से देख रहे हैं और ग्रामवासियों की इस प्रतिमा में अटूट आस्था है।



मंदिर के एक अन्य पुजारी ने कहा कि भगवान का यह चमत्कार हमने अपनी आँखों से देखा है और हम मंदिर के पुजारी ही उक्त प्रतिमा को पानी में तैरने के लिए उतारते है। उस दौरान लाखों लोगों की भीड़ रहती है।






हर डोल ग्यारस पर हाटपीपल्या के स्थानीय नृसिंह मंदिर से ढोल-ढमाके के साथ शाम चार बजे से मंदिर की नृसिंह भगवान की प्रतिमा को लेकर जुलूस शुरू होता है। इस दिन पूरे नगर में हर घर में लौंग का प्रसाद वितरित किया जाता है और नगरवासियों का सम्मान करते हैं। यहाँ पर इस प्रतिमा पर हार चढ़ाने की बोली लगाई जाती है। इसी दिन महिलाएँ इस डोल की पूजा-अर्चना करती हैं। रात को करीब तीन बजे ये डोल पुन: नृसिंह मंदिर में पहुँच जाते हैं।



शाम को ही जुलूस नृसिंह घाट पर पहुँचता है। नृसिंह घाट पर डोल को स्नान कराया जाता है। फिर पानी की पूजा-अर्चना की जाती है। तत्पश्चात्य मुख्य पुजारी गोपालदास वैष्णव, रमेशदास और विष्णुदास वैष्णव पानी का बहाव जाल फेंककर देखते हैं। जाल इसलिए कि एक निश्चित सीमा तक मूर्ति के तैरने के बाद यह यदि डूबने लगे तो जाल से उसकी रक्षा हो।



फिर नृसिंह मंदिर के पुजारी द्वारा मंत्रोच्चार के साथ इस साढ़े सात किलो की प्रतिमा को नदी में छोड़ा जाता है। यह सब नजारा देखकर श्रृद्धालुओं द्वारा गगनभेदी जयकारे लगाए जाते हैं। प्रतिमा को सिर्फ तीन बार ही पानी में छोड़ा जाता है। पिछले साल यह प्रतिमा दो बार तैरी थी, लेकिन इस वर्ष यह केवल एक ही बार तैरी |





कई वर्षों पहले तत्कालीन होलकर महाराज की जिद पर पाषाण प्रतिमा को जब चौथी बार पानी में तैराया गया तो यह प्रतिमा पानी में गायब हो गई थी। फिर मंदिर के पंडित को सपना आया कि अमुक जगह पानी में प्रतिमा है, तब बड़ी मशक्कत के बाद वह प्रतिमा मिली। ऐसे अनेक चमत्कार जुड़े हैं इस प्रतिमा से।



मंदिर में स्थापित नृसिंह भगवान की प्रतिमा नृसिंह पहाड़ से लाई गई है। पहले यह प्रतिमा नृसिंह गढ़ी में खेड़ापति मंदिर में स्थापित थी, लेकिन पिछले लगभग 85 वर्षों से इस प्रतिमा के लिए अलग मंदिर का निर्माण कर विधिवत नृसिंह प्रतिमा स्थापित की गई।



यहाँ के लोगों का मानना है कि अगर नदी में गर्मी के दिनों में पानी पूरा भी सूख जाता है, तब भी डोल ग्यारस आने के पूर्व नदी में बारिश के कारण पानी पुन: भर जाता है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि प्रतिमा तैराने वाले दिन नदी में पानी नहीं रहा हो।



आखिर क्या कारण हो सकता है प्रतिमा के तैरने का...क्या प्रतिमा जिस पत्थर से बनी है, उसका स्वरूप ही ऐसा है या वाकई यह कोई दैवीय चमत्कार है, फैसला आपको करना है.. अपनी राय से हमें जरूर अवगत कराएँ...



रेल मार्ग : इंदौर से देवास तक रेल मार्ग द्वारा पहुँचकर वहाँ से बस सुविधा उपलब्ध है।

सड़क मार्ग : देवास से 45 किमी दूर तहसील हाटपीपल्या पहुँचने के लिए बस और टैक्सी सुविधा उपलब्ध है।

वायु मार्ग : हाटपीपल्या के सबके पास स्थित है इंदौरClick here to see more news from this city का एयरपोर्ट।

मनो या ना मनो

छत्तीसगढ़ का एक छोटा-सा गाँव लेन्ध्रा। चाहे आप इसे मान्यता कहें या फिर अन्धविश्वास, इस गाँव के लोगों ने असमय मृत्यु से बचने के लिये सत्रह सालों से एक दीये को प्रज्ज्वलित कर रखा है।




इस गाँव के मुख्य मन्दिर राधा-माधव संकीर्तन आश्रम (जो रायगढ़ से पचास किलोमीटर की दूरी पर स्थित है) में यह दीया पिछले सत्रह सालों से लगातार जल रहा है। लोगों की मान्यता है कि इस दीये के जलने से किसी भी प्रकार की प्राकृतिक आपदा इस गाँव पर नहीं पड़ेगी।



इस गाँव के एक श्रद्धालु भारत पाण्डेय का कहना है कि वे हर साल यहाँ आते हैं और अपने परिवार को भी साथ लाने की कोशिश करते हैं। वे चौदह साल पहले यहाँ आए थे और तब से आज तक लगातार यहाँ आ रहे हैं। उन्हें यहाँ आना काफी अच्छा लगता है।



इस दीये को जलाए रखने के लिए जो खर्च होता है, उसे पूरा गाँव मिलकर उठाता है।




इस मन्दिर के पुजारी मुकेश कुमार के अनुसार, इस दीये को जलाने के लिए पूरे छत्तीसगढ़ से श्रद्धालु यहाँ आते हैं और मन्दिर में काफी मात्रा में दान-दक्षिणा भी देते हैं। उनके लिए इस पैसे से मुफ्त भोजन का भी इंतजाम किया जाता है। इस दीये को जलाए रखने के लिये दो व्यक्तियों को भी नियुक्त किया गया है।



अधिकतर ग्रामीण मानते हैं कि इस दीये के प्रज्ज्वलित रहने से सत्रह सालों से इस गाँव पर किसी तरह की प्राकृतिक आपदा नहीं आई है। करीब 3,500 लोगों की आबादी वाला यह गाँव आसपास के क्षेत्रों में भी श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है।

जै वैष्णो माता, मैया जै वैष्णो माता ।


हाथ जोड़ तेरे आगे, आरती मैं गाता ॥

जै वैष्णो माता…

शीश पे छत्र बिराजे, मूरतिया प्यारी ।

गंगा बहती चरनन, ज्योति जगे न्यारी ॥

जै वैष्णो माता…

ब्रह्मा वेद पढ़े नित द्वारे, शंकर ध्यान धरे ।

सेवक चंवर डुलावत, नारद नृत्य करे ॥

जै वैष्णो माता…

सुंदर गुफा तुम्हारी, मन को अति भावे ।

बार-बार देखन को, ऐ मां मन चावे ॥

जै वैष्णो माता…

भवन पे झण्डे झूले, घंटा ध्वनि बाजे ।

ऊंचा पर्वत तेरा, माता प्रिय लागे ॥

जै वैष्णो माता…

पान सुपारी ध्वजा नारियल, भेंट पुष्प मेवा ।

दास खड़े चरणों में, दर्शन दो देवा ॥

जै वैष्णो माता…

जो जन निश्चय करके, द्वार तेरे आवे ।

उसकी इच्छा पूरण, माता हो जावे ॥

जै वैष्णो माता…

इतनी स्तुति निशदिन, जो नर भी गावे ।

कहते सेवक ध्यानू, सुख संपति पावे ॥

जै वैष्णो माता…
gitakiboli आइये ऋषि से जानें कुछ प्रश्नों के उत्तर - वेदोत्पत्तिविषयः (3)


Submitted by AnandBakshi on Wed, 2009-06-03 12:38. Vedic Philosophy

प्रश्न - ‍ईश्वर ने मनुष्यों को स्वाभाविक ज्ञान दिया है सो सब ग्रन्थों से उत्तम है, क्यो‍कि उसके बिना वेदों के शब्द, अर्थ और सम्बन्ध‌ का ज्ञान कभी नहीं हो सकता
और जब उस ज्ञान की क्रम से वृद्धि होगी, तब मनुष्य लोग विद्यापुस्तकों को भी रच लेंगे, पुनः वेदों की उत्पत्ति ईश्वर से क्यों माननी ?



उत्तर - जो प्रथम दृष्टान्त बालक का एकान्त में रहने का और दूसरा वनवासियों का भी कहा था, क्या उनको स्वाभाविक ज्ञान ईश्वर ने नहीं दिया है ? वे स्वाभाविक ज्ञान से विद्वान क्यों नहीं होते ? इससे यह बात निश्चित है कि ईश्वर का किया उपदेश जो वेद है, उसके बिना किसी मनुष्य को यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता
जैसे हम लोग वेदों को पढ़े, विद्वानो की शिक्षा और उनके किये ग्रन्थों को पढ़े बिना पण्डित नहीं होते, वैसे ही सृष्टि के आदि में भी परमात्मा जो वेदों का उपदेश न करता तो आज पर्यन्त किसी मनुष्य को धर्मादि पदार्थों की यथार्थ विद्या नहीं होती
इससे क्या जाना जाता है कि विद्वानों की शिक्षा और वेद पढ़े बिना केवल स्वाभाविक ज्ञान से किसी मनुष्य का निर्वाह नहीं हो सकता
जैसे हम लोग अन्य विद्वानों से वेदादि शास्त्रों के अनेक प्रकार के विज्ञान को ग्रहण करके ही पीछे ग्रन्थों को भी रच सकते हैं, वैसे ही ईश्वर के ज्ञान की भी अपेक्षा सब मनुष्यों को अवष्य है
क्योंकि सृष्टि के आरम्भ में पढ़ने और् पढ़ाने की कुछ भी व्यवस्था नहीं थी, तथा विद्या का कोई ग्रन्थ भी नहीं था
उस समय ईश्वर के किये वेदोपदेश के बिना विद्या के नहीं होने से कोई मनुष्य ग्रन्थ की रचना कैसे कर सकता ? क्योंकि सब मनुष्यों को सहायकारी ज्ञान में स्वतन्त्रता नहीं है
और स्वाभाविक ज्ञानमात्र से विद्या की प्राप्ति किसी को नहीं हो सकती
इसीलिए ईश्वर ने सब मनुष्यों के हित के लिये वेदों की उत्पत्ति की है




और जो यह कहा था कि अपना ज्ञान सब वेदादि ग्रन्थों से श्रेष्ठ है सो भी अन्यथा है, क्योंकि वह स्वाभाविक जो ज्ञान है सो साधनकोटि में है
जैसे मन के संयोग के बिना आंख से कुछ भी नहीं देख पड़ता तथा आत्मा के संयोग बिना मन से भी कुछ नहीं होता, वैसे ही जो स्वाभाविक ज्ञान है सो वेद और विद्वानों की शिक्षा के ग्रहण करने में साधन मात्र ही है, तथा पशुओं के समान व्यवहार का भी साधन है, परन्तु वह स्वाभाविक ज्ञान धर्म, अर्थ, काम और मोक्षविद्या का साधन स्वतन्त्रता से कभी नहीं हो सकता




महर्षि दयानन्द सरस्वती

(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका)

Q/A on CREATION OF VEDAS from MAHRISHI DAYANANDA SARASWATI(3)

krmshah

शनिवार, 28 नवंबर 2009

कलयुगी धंदा

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्‍वरीय विश्‍व विद्यालय

ज्ञान बाँटने का धंदा जोरों पर है |
संस्थाएं ,आश्रम, गुरु,अब विश्वविद्यालय
जिन की कोई आवश्यकता ही नही |
उनपर खर्च होते हैं करोड़ों |
सोचो ओरत को सम्भोग करना कोन सिखाताहै?|
उसे यह ज्ञान कहाँ से आता है? फिर यह सब क्या है?









-नूपुर दीक्षित

“परमात्‍मा एक है, वह निराकार एवं अनादि है। वे विश्‍व की सर्वशक्तिमान सत्‍ता है और ज्ञान के सागर है।”



इस मूलभूत सिद्धांत का पालन करते हुए प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्‍वरीय विश्‍व विद्यालय इन दिनों विश्‍व भर में धर्म को नए मानदंडों पर परिभाषित कर रहा है। जीवन की दौड़-धूप से थक चुके मनुष्‍य आज शांति की तलाश में इस संस्‍था की ओर प्रवृत्‍त हो रहे हैं।



यह कोई नया धर्म नहीं बल्कि विश्‍व में व्‍याप्‍त धर्मों के सार को आत्‍मसात कर उन्‍हें मानव कल्‍याण की दिशा में उपयोग करने वाली एक संस्‍था है। जिसकी विश्‍व के 72 देशों में 4,500 से अधिक शाखाएँ हैं। इन शाखाओं में 5 लाख विद्यार्थी प्रतिदिन नैतिक और आध्‍यात्मिक शिक्षा ग्रहण करते हैं।



इस संस्‍था की स्‍थापना दादा लेखराज ने की, जिन्‍हें आज हम प्रजापिता ब्रह्मा के नाम से जानते हैं।



दादा लेखराज अविभाजित भारत में हीरों के व्‍यापारी थे। वे बाल्‍यकाल से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। 60 वर्ष की आयु में उन्‍हें परमात्‍मा के सत्‍यस्‍वरूप को पहचानने की दिव्‍य अनुभूति हुई। उन्‍हें ईश्‍वर की सर्वोच्‍च सत्‍ता के प्रति खिंचाव महसूस हुआ। इसी काल में उन्‍हें ज्‍योति स्‍वरूप निराकार परमपिता शिव का साक्षात्‍कार हुआ। इसके बाद धीरे-धीरे उनका मन मानव कल्‍याण की ओर प्रवृत्‍त होने लगा।



उन्‍हें सांसारिक बंधनों से मुक्‍त होने और परमात्‍मा का मानवरूपी माध्‍यम बनने का निर्देश प्राप्‍त हुआ। उसी की प्रेरणा के फलस्‍वरूप सन् 1936 में उन्‍होंने इस विराट संगठन की छोटी-सी बुनियाद रखी। सन् 1937 में आध्‍यात्मिक ज्ञान और राजयोग की शिक्षा अनेकों तक पहुँचाने के लिए इसने एक संस्‍था का रूप धारण किया।



इस संस्‍था की स्‍थापना के लिए दादा लेखराज ने अपना विशाल कारोबार कलकत्‍ता में अपने साझेदार को सौंप दिया। फिर वे अपने जन्‍मस्‍थान हैदराबाद सिंध (वर्तमान पाकिस्‍तान) में लौट आए। यहाँ पर उन्‍होंने अपनी सारी चल-अचल संपत्ति इस संस्‍था के नाम कर दी। प्रारंभ में इस संस्‍था में केवल महिलाएँ ही थी।



बाद में दादा लेखराज को ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ नाम दिया गया। जो लोग आध्‍या‍त्मिक शांति को पाने के लिए ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ द्वारा उच्‍चारित सिद्धांतो पर चले, वे ब्रह्मकुमार और ब्रह्मकुमारी कहलाए तथा इस शैक्षणिक संस्‍था को ‘प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्‍वरीय विश्‍व विद्यालय’ नाम दिया गया।



इस विश्‍वविद्यालय की शिक्षाओं को वैश्विक स्‍वीकृति और अंतर्राष्‍ट्रीय मान्‍यता प्राप्‍त हुई है।

मानों या न मानो

अंबा माताजी के पास गब्बर पर्वतमाला की गुफा में रह रहे चुनरी वाले माताजी (पुरुष साधक)पिछले 65 साल से बिना कुछ खाए-पिए रहने तथा दैनिक क्रियाओं को भी योग की शक्ति से रोक देने की वजह से चिकित्सा विज्ञान के लिए एक चुनौती बन गए हैं। मुंबई तथा अहमदाबाद के चिकित्सकों ने सीसीटीवी के बीच उनकी जाँच भी की, लेकिन उनके इस रहस्य पर से पर्दा उठाने में वे भी नाकाम रहे। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी इसमें रुचि दिखाई है, यदि माताजी के ऊर्जा का स्रोत का पता चल जाता है तो शायद यह अंतरिक्ष यात्रियों एवं सेना के जवानों के लिए कारगर साबित होगा।



गाँधीनगर के चराड़ा गाँव निवासी प्रहलाद भाई जानी कक्षा तीन तक पढे़ लिखे हैं। ग्यारह वर्ष की उम्र में उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, और उन्होंने घर त्याग कर जंगलों में रहना शुरू कर दिया। जानी का दावा है कि दैवीय कृपा तथा योग साधना के बल पर वे करीब 65 वर्ष से बिना कुछ खाए पिए-जिंदा हैं। इतना ही नहीं मल-मूत्र त्यागने जैसी दैनिक क्रियाओं को योग के जरिए उन्होंने रोक रखा है। स्टर्लिंग अस्पताल के न्यूरोफिजिशियन डॉ. सुधीर शाह बताते हैं कि जानी के ब्लैडर में मूत्र बनता है, लेकिन कहाँ गायब हो जाता है इसका पता करने में विज्ञान भी अभी तक विफल ही रहा है। रक्षा मंत्रालय के डॉ. सेल्वा मूर्ति की अगुआई में 15 चिकित्सकों की टीम ने लगातार दस दिन तक उनका वीडियो कैमरों के बीच चिकित्सकीय परीक्षण भी किया, लेकिन उनके समक्ष आज भी चुनरी वाले माताजी का यह केस एक यक्ष प्रश्न ही बना हुआ है। डॉ. शाह बताते हैं कि पहली बार माताजी का मुंबई के जे.जे. अस्पताल में परीक्षण किया गया था, लेकिन इस रहस्य से पर्दा नहीं उठ सका।



वे बताते हैं कि यह माताजी कभी बीमार नहीं हुए, उनकी शारीरिक क्रियाएँ सभी सामान्य रूप से क्रियाशील हैं। चिकित्सक समय-समय पर उनका परीक्षण भी करते हैं, लेकिन ब्लड प्रेशर, हार्ट बीट आदि सभी सामान्य ही पाई गई हैं। चिकित्सकीय परीक्षण के दौरान डिस्कवरी चैनल ने भी उन पर एक लघु फिल्म तैयार की है। इसके अलावा डॉ. शाह ने भी माताजी के तथ्यों को केस स्टडी के रूप में अपनी वेबसाइट पर डालकर दुनिया के चिकित्सकों को इस पहेली को सुलझाने की चुनौती दी है, लेकिन फिलहाल तक कोई भी इस पहेली को नहीं सुलझा पाया है।



अहमदाबाद में व्याख्यान देने आए पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने अब इस केस को हाथ में लिया है वे इसका फिर से वैज्ञानिक परीक्षण कराना चाहते हैं। यदि जानी के ऊर्जा स्रोत का पता चल जाता है तो चिकित्सकों का दावा है कि इससे अंतरीक्ष यात्रियों तथा सेना के जवानों की खाद्य समस्या हल हो सकती है साथ ही अकाल एवं भुखमरी जैसी समस्या को भी समाप्त किया जा सकता है।



वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. उर्मन ध्रूव बताते हैं कि जानी का शरीर पूरी तरह स्वस्थ है, चिकित्सा विज्ञान के समक्ष वे अब तक अबूझ पहेली बने हुए हैं। उनकी एक भी कोशिका में चर्बी का कोई अंश नहीं है। इसे दैवीय कृपा नहीं कहा जा सकता, लेकिन उनके शरीर में ऊर्जा का कोई अतिरिक्त स्रोत जरूर है।- नईदुनिया
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

सनातन धर्म

सनातन धर्म का सत्य


(बुधवार 2 सितंबर 2009)

सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो। जिन बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है। जैसे सत्य सनातन है। ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म भी सत्य है। वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा वह ही सनातन या शाश्वत है। जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है उस सत्य को ही सनातन कहते हैं। यही सनातन धर्म का सत्य है।


कुछ लोग कहते हैं कि राम भगवान नहीं थे, वे तो राजा थे। कुछ का मानना है कि वे एक का‍‍ल्पनिक पात्र हैं। वे कभी हुए ही नहीं। वर्तमान काल में राम की आलोचना करने वाले कई लोग मिल जाएँगे। राम के खिलाफ तर्क जुटाकर कई पुस्तकें लिखी गई हैं। इन पुस्तक लिखने वालों में वामपंथी विचारधारा और धर्मांतरित लोगों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया है। तर्क से सही को गलत और गलत को सही सिद्ध किया जा सकता है। तर्क की बस यही ताकत है। तर्क वेश्याओं की तरह होते हैं।विचलित हुई इनकी बुधी भ्रम को बुना करती हे और ब्रह्म से दूर हो जाती है |   
               


उनकी आलोचना स्वागतयोग्य है। जो व्यक्ति हर काल में जिंदा रहे या जिससे लोगों को खतरा महसूस होता है, आलोचना उसी की ही होती है। मृत लोगों की आलोचना नहीं होती। जिस व्यक्ति की आलोचना नहीं होती वे इतिहास में खो जाते हैं।



आलोचकों के कारण राम पौराणिक थे या ऐतिहासिक इस पर शोध हुए हैं और हो रहे हैं। सर्वप्रथम फादर कामिल बुल्के ने राम की प्रामाणिकता पर शोध किया। उन्होंने पूरी दुनिया में रामायण से जुड़े करीब 300 रूपों की पहचान की।



राम के बारे में एक दूसरा शोध चेन्नई की एक गैरसरकारी संस्था भारत ज्ञान द्वारा पिछले छह वर्षो में किया गया है। उनके अनुसार अगली 10 जनवरी को राम के जन्म के पूरे 7122 वर्ष हो जाएँगे। उनका मानना है कि राम एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे और इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। राम का जन्म 5114 ईस्वी पूर्व हुआ था। वाल्मीकि रामायण में लिखी गई नक्षत्रों की स्थिति को 'प्ले‍नेटेरियम' नामक सॉफ्टवेयर से गणना की गई तो उक्त तारीख का पता चला। यह एक ऐसा सॉफ्टवेयर है जो आगामी सूर्य और चंद्र ग्रहण की भविष्यवाणी कर सकता है।



मुंबई में अनेक वैज्ञानिकों, इतिहासकारों, व्यवसाय जगत की हस्तियों के समक्ष इस शोध को प्रस्तुत किया गया। और इस शोध संबंधित तथ्यों पर प्रकाश डालते हुए इसके संस्थापक ट्रस्टी डीके हरी ने एक समारोह में बताया था कि इस शोध में वाल्मीकि रामायण को मूल आधार मानते हुए अनेक वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक, ज्योतिषीय और पुरातात्विक तथ्यों की मदद ली गई है। इस समारोह का आयोजन भारत ज्ञान ने आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर की संस्था आर्ट ऑफ लिविंग के साथ मिलकर किया था।



कुछ वर्ष पूर्व वाराणसी स्थित श्रीमद् आद्य जगदगुरु शंकराचार्य शोध संस्थान के संस्थापक स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती ने भी अनेक संस्कृत ग्रंथों के आधार पर राम और कृष्ण की ऐतिहासिकता को स्थापित करने का कार्य किया था।



इस के अलावा नेपाल, लाओस, कंपूचिया, मलेशिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका, बाली, जावा, सुमात्रा और थाईलैंड आदि देशों की लोकसंस्कृति व ग्रंथों में आज भी राम जिंदा है। दुनिया भर में बिखरे शिलालेख, भित्ति चित्र, सिक्के, रामसेतु, अन्य पुरातात्विक अवशेष, प्राचीन भाषाओं के ग्रंथ आदि से राम के होने की पुष्टि होती है।



आलोचकों को चाहिए कि वे इस तरह और इस तरह के तमाम अन्य शोधों की भी आलोचना करें और इन पर भी सवाल उठाएँ, तभी नए-नए शोधों को प्रोत्साहन मिलेगा। एक दिन सारी आलोचनाएँ ध्वस्त हो जाएँगी। क्यों? क्योंकि द्वेषपूर्ण आलोचनाएँ लचर-पचर ही होती हैं। दूसरे के धर्म की प्रतिष्ठा गिराकर स्वयं के धर्म को स्थापित करने के उद्देश्य से की गई आलोचनाएँ सत्य के विरुद्ध ही मानी जाती हैं।



कहते हैं कि किसी देश, धर्म और संस्कृति को खत्म करना है तो उसके इतिहास पर सवाल खड़े करो, फिर तर्क द्वारा इतिहास को भ्रमित करो- बस तुम्हारा काम खत्म। फिर उसे खत्म करने का काम तो उस देश, धर्म और संस्कृति के लोग खुद ही कर देंगे।



अंग्रेज इस देश और यहाँ के धर्म और इतिहास को इस कदर भ्रमित कर चले गए कि अब उनके कार्य की कमान धर्मांतरण कर चुके लोगों, राजनीतिज्ञों व कट्टरपंथियों ने सम्भाल ली है।



विखंडित करने के षड्यंत्र के पहले चरण का परिणाम यह हुआ कि हम अखंड भारत से खंड-खंड भारत हो गए। एक समाज व धर्म से अनेक जाति और धर्म के हो गए। आज का जो भारतीय उपमहाद्वीप है और वहाँ की जो राजनीति तथा समाज की दशा है वह अंग्रेजों की कूटनीति का ही परिणाम है।



जब कोई प्रशासन और सैन्य व्यवस्था, व्यक्ति या पार्टी 10 वर्षों में देश को नष्ट और भ्रष्ट करने की ताकत रखता है तो यह सोचा नहीं जाना चाहिए कि 200 साल के राज में अंग्रेजों ने क्या किया होगा? अंग्रेजों ने हमें बहुत कुछ दिया लेकिन सब कुछ छीनकर।



यह सोचने वाली बात है कि हम दुनिया कि सबमें पुरानी कौम और पुराने मुल्कों में गिने जाते हैं, लेकिन इतिहास के नाम पर हमारे पास मात्र ढाई से तीन हजार वर्षों का ही इतिहास संरक्षित है। हम सिंधु घाटी की सभ्यता से ही शुरू माने जाते हैं। हमें आर्यों के बाद सीधे बुद्धकाल पर कुदा दिया जाता है। बीच की कड़ी राम और कृष्ण को किसी षड्यंत्र के तहत इतिहास की पुस्तकों में कभी शामिल ही नहीं किया गया।

'''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''
राम जी की वंशावली
हिंदू धर्म में राम को विष्णु का सातवाँ अवतार माना जाता है। वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे- इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध। राम का जन्म इक्ष्वाकु के कुल में हुआ था। जैन धर्म के तीर्थंकर निमि भी इसी कुल के थे।



मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुँची। इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी।



रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है:- ब्रह्माजी से मरीचि का जन्म हुआ। मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। कश्यप के विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वतमनु हुए। वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुल की स्थापना की।



इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए। कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। विकुक्षि के पुत्र बाण और बाण के पुत्र अनरण्य हुए। अनरण्य से पृथु और पृथु और पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ। त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए। धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए और मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ। सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित। ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए।



भरत के पुत्र असित हुए और असित के पुत्र सगर हुए। सगर अयोध्या के बहुत प्रतापी राजा थे। सगर के पुत्र का नाम असमंज था। असमंज के पुत्र अंशुमान तथा अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए। दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए। भगीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतार था। भगीरथ के पुत्र ककुत्स्थ और ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए। रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया। तब राम के कुल को रघुकुल भी कहा जाता है।



रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए। प्रवृद्ध के पुत्र शंखण और शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए। सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था। अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग और शीघ्रग के पुत्र मरु हुए। मरु के पुत्र प्रशुश्रुक और प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए। अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था। नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुए। नाभाग के पुत्र का नाम अज था। अज के पुत्र दशरथ हुए और दशरथ के ये चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हैं। वा‍ल्मीकि रामायण- ॥1-59 से 72।।


=================================================================
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
==================================================================
'राम' यह शब्द दिखने में जितना सुंदर है उससे कहीं महत्वपूर्ण है इसका उच्चारण। राम कहने मात्र से शरीर और मन में अलग ही तरह की प्रतिक्रिया होती है जो हमें आत्मिक शांति देती है।


राम मेरी आत्मा
राम ने 14 वर्ष वन में रहकर भारतभर में भ्रमण कर भारतीय आदिवासी, जनजाति, पहाड़ी और समुद्री लोगों के बीच सत्य, प्रेम, मर्यादा और सेवा का संदेश फैलाया।(क्यों की उन्हों ने सनातन धर्म की स्थापना हेतु अवतार लिया था |इन क्षत्रों में धर्म लुप्त हो चूका था) यही कारण रहा की राम का जब रावण से युद्ध हुआ तो सभी तरह की अनार्य जातियों ने राम का साथ दिया। यह वह काल था जबकि लोगों में किसी भी प्रकार की जातिवादी सोच नहीं थी। लोग सिर्फ दो तरह की सोच में ही बँटे थे- यक्ष और रक्ष जिसे सूर और असुर या देव और दानव कहा जाता था।



जन्म: राम एक ऐतिहासिक महापुरुष थे और इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। शोधानुसार पता चलता है कि भगवान राम का जन्म आज से 7122 वर्ष पूर्व अर्थात 5114 ईस्वी पूर्व हुआ था। अन्य विशेषज्ञों अनुसार राम का जन्म आज से लगभग 9,000 वर्ष (7323 ईसा पूर्व) हुआ था। चैत्र मास की नवमी को रामनवमी के रूप में मनाया जाता है।



राम का परिचय : अयोध्या के राजा दशरथ के चार पुत्रों में सबसे बड़े पुत्र थे भगवान राम। दशरथ की तीन पत्नीयाँ थी- कौशल्या, सुमीत्रा और कैकयी। राम के तीन भाई थे। लक्ष्मण, भरत और शत्रुध्न। राम कौशल्या के पुत्र थे। सुमीत्रा के लक्ष्मण और शत्रुध्न दो पुत्र थे। कैकयी के पुत्र का नाम भरत था।



लक्ष्मण की पत्नी का नाम उर्मिला, शत्रुध्न की पत्नी का नाम श्रुतकीर्ति और भरत की पत्नी का नाम मांडवी था। सीता और उर्मिला राजा जनक की पुत्रियाँ थी और मांडवी और श्रुत‍कीर्ति कुशध्वज की पुत्रियाँ थी। लक्ष्मण के अंगद तथा चंद्रकेतु नामक दो पुत्र थे।



राम का विवाह मिथिला के नरेश राजा जनक की पुत्री सीता से हुआ। सीता स्वयंवर में रावण भी आया था। विवाह बाद कैकयी के कहने पर राम को दशरथ ने 14 वर्ष के वनवास में भेज दिया। वनवास में सीता और लक्ष्मण भी उनके साथ गए। इधर कैकयी ने भारत को अयोध्या का राजा बना दिया।



वनवास के दौरान लक्ष्मण ने रावण की बहिन सूर्पणखा की नाक काट दी थी। सीता स्वयंवर में अपनी हार और सूरपर्णखा की नाक काटने का बदला लेने के लिए रावण ने सीता का हरण कर लिया। वनवास के दौरान ही राम को सीता से दो पुत्र प्राप्त हुए- लव और कुश। एक शोधानुसार लव और कुश की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए ‍जो महाभारत युद्ध में कोरवों की ओर से लड़े थे।



राम ने सीता को रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए संपाति, हनुमान, सुग्रीव, विभिषण, मैन्द, द्विविद, जाम्बवंत, नल, नील, तार, अंगद, धूम्र, सुषेण, केसरी, गज, पनस, विनत, रम्भ, शरभ, महाबली कम्पन (गवाक्ष), दधिमुख, गवय और गन्धमादन आदि की सहायता से सेतु बनाया और लंका पर चढ़ाई कर दी। लंका में घोर युद्ध हुआ और पराक्रमी रावण का वध हो गया। तब पुष्पक विमान द्वारा रावण सीता सहित पुन: अयोध्या आ गए।



इस सारे घटनाक्रम में हनुमानजी ने राम का बहुत साथ दिया इसीलिए हनुमानजी राम के अनन्य सहायक और भक्त सिद्ध हुए। भगवान राम को हनुमान ऋष्यमूक पर्वत के पास मिले थे।



महत्वपूर्ण घटनाक्रम: गुरु वशिष्ठ से शिक्षा-दिक्षा लेना, विश्वामित्र के साथ वन में ऋषियों के यज्ञ की रक्षा करना और राक्षसों का वध, राम स्वयंवर, शिव का धनुष तोड़ना, वनवास, केवट से मिलन, लक्ष्मण द्वारा सूर्पणखा (वज्रमणि) की नाक काटना, खर और दूषण का वध, लक्ष्मण द्वारा लक्ष्मण रेखा खींचना, स्वर्ण हिरण-मारीच का वध, सीता हरण, जटायु से मिलन।



कबन्ध का वध, शबरी से मिलन, हनुमानजी से मिलन, सुग्रीव से मिलन, दुन्दुभि और बाली का वध, संपाति द्वारा सीता का पता बताना, अशोक वाटिका में हनुमान द्वारा सीता को राम की अँगुठी देना, हनुमान द्वारा लंका दहन, सेतु का निर्माण, लंका में रावण से युद्ध, लक्ष्मण का मुर्छित होना, हनुमान द्वारा संजीवनी लाना और रावण का वध, पुष्पक विमान से अयोध्या आगमन।



रामायण : रामायण को वा‍ल्मीकि ने राम के काल में ही लिखा था। इसीलिए इस ग्रंथ को सबसे प्रमाणिक ग्रंथ माना जाता है। रामायण और महाभारत यही ग्रंथ मूलत: हिंदू इतिहास की प्रमाणिक जानकारी देते हैं। यह मूल संस्कृत में लिखा गया ग्रंथ है।



रामचरित मानस : रामचरित मानस को गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा जिनका जन्म संवत्‌ 1554 को हुआ था। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना अवधि भाषा में की। रामायण से अधिक इस ग्रंथ की लोकप्रियता है।



अन्य भारतीय रामायण : तमिल भाषा में कम्बन रामायण, असम में असमी रामायण, उड़िया में विलंका रामायण, कन्नड़ में पंप रामायण, कश्मीर में कश्मीरी रामायण, बंगाली में रामायण पांचाली, मराठी में भावार्थ रामायण आदि भारतीय भाषाओं में प्राचीनकाल में ही रामायण लिखी गई।



विदेशी रामायण : कंपूचिया की रामकेर्ति या रिआमकेर रामायण, लाओस फ्रलक-फ्रलाम (रामजातक), मलयेशिया की हिकायत सेरीराम, थाईलैंड की रामकियेन और नेपाल में भानुभक्त कृत रामायण आदि प्रचलीत है। इसके अलावा भी अन्य कई देशों में वहाँ की भाषा में रामायण लिखी गई है।